Monday, November 14, 2011

अवसर

थी मरूभूमि सी अथाह भयावह रात्रि
पतझड़  के पत्तों सा बिखरा सन्नाटा|
ना ही कोई आहट, ना कोई रव
फिर कौन है जो मंद-मंद बढ़ा चला आ रहा!!
      ना शीत के शूलों का भय,
      ना तम, ना निशचरों का डर,
      बढ़ा आ रहा वह एक लय में
      ना जाने जा रहा है किधर||
है काँधे पर एक फटी सी झोली,
कुछ मैले वस्त्रों का अलंकार|
ना जाने क्या है उसके मन में जो
रुक गया अचनाक एक द्वार|
      कुछ दस्तक सी हुई दरवाज़े पर
      स्पष्ट थी स्फटिक सी वो आवाज़,
      सन्नाटे की मृग-मरीचिका समझ
      जिसे कर दिया गया नज़र-अंदाज़|
बढ़ चला वो आगे लाठी टेकता,
मुख पे लिए मंद मुस्कान|
अपरिचित सा एक अवसर था वो,
जो चल चुका था होने कहीं और मेहरबान||

 -- सिद्धार्थ

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