Thursday, January 12, 2012

दुःस्वप्न

खोलो आँखें, बिस्तर छोड़ो,
कि नयी सुबह हो गयी है|
पर सो ही कहाँ पाए थे,
कि शायद नींद ही कहीं खो गयी है|
      जागे हुए थे सोते में भी
      थी हकीकत ही शायद एक सपना सा|
      तडप रहा था, ठिठुर रहा था वो
      न जाने क्यो लगा था कुछ अपना सा|
धुंधली सी थी आकृति उसकी
दूर क्षितिज के कोरों पर|
पास जाने का सोचा तो था
साथ ना दिया इन कदमो ने मगर|
     सुंदर सा एक रास्ता था क्षितिज तक
     सुसज्जित नरम घास के गळीचों से|
     फिर क्यो दुखी, निराश था वो शख्स
     चला होगा तो आख़िर इसी राह पे|
इसी दुविधा को लिए मन में
क्षितिज तक बढ़ चले ये कदम|
पर वह तो एक भ्रम था मात्र
दूरी कभी हो सकी ना कम|
     ढूँढ छटी, कोहरा घटा,
     वह शख्स साफ आया नज़र|
     वो मेरी ही तो आँखें थी जो
     घूर रही थी मुझे उधर|
विचलित सी जैसे पूछ रही हों,
तू भी इसी राह क्यो आया?
यह जिंदगी तो तेरी अपनी है
फिर अपनी राह खुद क्यो ना बनाया?
     तुझमे थी वो क्षमता औ' लगन
     अगर तुझमे होती थोड़ी चाह,
     तो इस रस्ते पे आने के बदले
     बना सकता था एक बेहतर राह|
तभी इसी पथ के छोर पर
एक और आकृति को देखा बैठा,
शायद मुझे पहचानने की कर रहा था कोशिश
मुझसे अंजान, वो मैं ही था|
     उठ बैठा अचानक नींद से
     देखा की भोर हो गयी है|
     उस दिन से लेकर आज तक जैसे
     मेरी नींद सदा के लिए सो गयी है,
     मेरी नींद सदा के लिए सो गयी है||

-- सिद्धार्थ