Friday, August 26, 2011

शीर्षक समझ में नही आ रहा क्या लिखूँ


देख रहा हूँ उस अटल, अद्भुत
अहिंसा के पुजारी को|
देख रहा हूँ कलियुग में इस
नवयुग के सन्यासी को||
       देख रहा हूँ कैसे सारा
       भारतवर्ष आज एक है|
       देख रहा मैं अकल्पनीय
       इक नवनिर्माण की तैयारी को||
एक समय वह भी था देखा 
जब गजनी का आतंक था|
सहमी हुई सी थी सारी धरती
सबके आत्मसम्मान का वो अन्त था|
        मूक-दर्शक सा देख रहा हूँ,
        हजारों गजनियों को करते हुए राज़|
        हैरत हो रही थी कि अब तक
        क्यो ना उठी कोई आवाज||
सोच रहा था किंकर्तव्यविमूढ सा
कब होगा मेरे इस दुर्भाग्य का अन्त|
तभी संघर्ष का बिगुल बजाने
मुझसे आ मिला वो संत||
     गर्व है मुझे मुर्दो के बीच आज
     कोई तो जिन्दा रहता है,
     उस जगह जहाँ कोई मुझे देहली
     औ' कोई दिल्ली कहता है||

-- सिद्धार्थ