गिरा करता है शोर क्षिपणी सा
आज भी इन कानो के पर्दों पर |
होता है प्रहार आज भी
तन्हा, पृथक से इस दिल पर |
हैं सोने को बेचैन ये आँखें
पर जैसे चुरा ली गयी हो नींद |
उठ नही पा रहे हैं ये पग
सारी दुनिया है जिन कदमों पर |
भूल गया है मकसद अपना
पर दुनिया से अन्जान नही
है अचेत सा, अनभिज्ञ सा
पर खोया आत्मसम्मान नही |
राह कठिन है, किंतु हठ कर
तू आगाज़ से अंजाम तक चल |
मंजिल तो मिलेगी ही कभी ना कभी
बस मंजिल की पहचान तू कर |
-- सिद्धार्थ
आज भी इन कानो के पर्दों पर |
होता है प्रहार आज भी
तन्हा, पृथक से इस दिल पर |
हैं सोने को बेचैन ये आँखें
पर जैसे चुरा ली गयी हो नींद |
उठ नही पा रहे हैं ये पग
सारी दुनिया है जिन कदमों पर |
भूल गया है मकसद अपना
पर दुनिया से अन्जान नही
है अचेत सा, अनभिज्ञ सा
पर खोया आत्मसम्मान नही |
राह कठिन है, किंतु हठ कर
तू आगाज़ से अंजाम तक चल |
मंजिल तो मिलेगी ही कभी ना कभी
बस मंजिल की पहचान तू कर |
-- सिद्धार्थ
2 comments:
idea chura liya :@
bahut hi badiya kavita hai...
par pehle ke do paragraphs mein even pankityan thodi khichhi lag rahi hai.. :S
haan yaar.. just a noobie i m.. kahan se laaun ideas.. :P
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