Wednesday, August 29, 2012

कहाँ हो?

हे मर्यादापुरुषोत्तम राम, कहाँ हो?
हे गिरिधर घनश्याम, कहाँ हो?

कि धरा पर पाप बढ़ेगा जब-जब
पापियों का संहार करने आऊँगा तब-तब,
ऐसा कहने वाले श्याम, कहाँ हो?
हे मेरे प्रभु श्रीराम, कहाँ हो?

 कि समा गयी है धरती, तमस की आगोश में,
डूब गयी है रूह, संताप और गहरे रोष में।
 रोशनी दिखाने वाले, हे भगवान कहाँ हो?
हे जग के संरक्षक श्रीराम, कहाँ हो?

भटक गये कई अर्जुन स्वपथ, सात्विकि के इंतज़ार में,
कर रहे शांतिदूत की प्रतीक्षा, इस नैतिकता के सन्हार में,
कि द्रौपदी के आबरु-रक्षक गोपाल कहाँ हो?
धरती कर रही इंतज़ार,कहाँ हो?

--  सिद्धार्थ


Thursday, March 1, 2012

केसरिया और हरा

हृदय चीत्कार कर रहा है। आँखें खून के आँसू रो रही हैं। एक आँधी सी चल रही है विचारों की इस मस्तिष्क में। आखिर क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने किसी का? एक सफर पे ही तो निकला था, इस बात से अंजान कि वह उसका आखिरी सफर होगा। बिना वजह इतनी कष्टदायक मौत! आखिर कौन राक्षस किसी को जिंदा अग्नी के सुपुर्द कर सकता है! राक्षस ही तो थे। नही तो ऐसा कुकर्म क्यों करते? तीन सौ से ज्यादा लोग मरे। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान; आग भी कहीं भेद-भाव करती है क्या!!
इसकी सज़ा मिलनी चाहिए। जब ट्रेन की अग्नि ने भेद-भाव ना किया तो मेरे मन की अग्नि क्यों करे। राक्षसों को मरना होगा। सारी कौम को इसका जबाब देना होगा। ट्रेन के आद्यंत अग्निदेव ने सिर्फ मुझ अकेले के मन में प्रवेश नहीं किया है। और लोग भी सड़कों पर आ चुके हैं। मैं इनका साथ जरूर दूँगा। प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस पवित्र यज्ञ में प्रथम आहुति मेरी तरफ से ही चढ़ेगी। उन लोगों ने हमें कमजोर समझ कर बहुत बड़ी भूल की है। उन्हे ये दिखाना होगा कि ज्यादा ताकतवर कौन है। हम अपने भाईयों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाने देंगे। आज, अभी, इसी वक़्त इस धरती का शुद्धिकरण होगा, रक्ताभिषेक होगा।
तीन घंटे हो चुके हैं मुझे मौत का ताण्डव करते। ना जाने कितनों के रक्त से इस धरा की प्यास बुझाई है। केसरिया रंग हरे पे भारी पड़ चुका है। और हरा - वो शायद उस भूल पे पछ्ताना शुरु भी कर चुका होगा। ना जाने कितने अतृप्त आत्माओं को शांति दिलाने का श्रेय मुझे जाता है। पर फिर भी ये चित्त अशांत सा क्यों है? क्यो ऐसा लग रहा है कि जो मैं कर रहा हूँ वह सही होकर भी गलत है? रक्तरंजित मेरी कटार अब उठने से इंकार क्यों कर रही है? और अचानक से ये बच्चा कहाँ से सामने आ गया! केसरिया साफा बाँधे, हरे वस्त्र धारण किये, इसका चेहरा शायद भय से सफेद हो गया है। अपनी प्रश्न भरी नीली आँखों से मुझे देख रहा है। क्या ये मेरा वहम मात्र है? इसके हरे कपड़े पर भरोसा करूँ या केसरिया साफे पर? क्या करूँ मैं?


शाम का समय है और रोज़ की तरह साथियों के संग खेल रहा हूँ। खेल-खेल में केसरिया साफा जीता है। हालांकि रंगों की इतनी पहचान अभी नही है मुझे। पर ये अचानक शोरगुल कैसा! मेरे साथी मुझसे दूर क्यों होते जा रहे हैं! मुझे लगता है कि अब घर चलना चाहिये। आज लोगों के माथे पे ये इतनी गहरी शिकन कैसी? अब तो ड़र सा लगने लगा है। जल्दी घर पहुँचता हूँ। अरे! यह धुँआ कैसा? यह तो मेरा घर है। अम्मीSSS... अब्बूSSS... कोई जबाब क्यों नही देता। जाने पहचाने चेहरे ड़रे हुए से भाग रहे हैं। कुछ और चेहरे हाथों में मशाल और तलवार लिये हँस रहे हैं। कोई किसी को मार कर इतना खुश कैसे हो सकता है? क्या ये वही राक्षस हैं जिनके बारे में मास्टरजी ने बताया था? कुछ समझ में नही आ रहा है। वो सामने से शायद खुर्शिद चाचा भागते आ रहे हैं। हाँ, खुर्शिद चाचा ही हैं। मुझे पकड़ कर कही ले जा रहे हैं, छुपने के लिये कह रहे हैं। दंगा क्या होता है? हिंदू मुस्लिम का खून क्यो कर रहे हैं? क्या मुझे भी मार डालेंगे? क्या मेरी गलती सिर्फ इतनी है कि मैं बगल वाले घर में पैदा ना हुआ? वह तो मेरे बस में नही था। फिर ऊपरवाले की गल्ती की सज़ा मुझे क्यों?
ये कौन खड़ा है मेरे सामने कटार लिये? क्या हिंदू है? क्या राक्षस है? मुझे ऐसे क्यों घूर रहा है? कटार उठा ही ली है तो अपना काम पूरा कर। क्या पता अगले जन्म में मैं तेरे घर और तू मेरे घर पैदा हो।

दूर कहीं तिरंगा लहरा रहा है। समानांतर केसरिया और हरा को अपने अंदर समेटे। भय से सफेद पड़े एक क्षीण रेखा से विभाजित। नीले चक्र से नज़रबद्ध्। एक साथ रहने को बाध्य, पर कभी ना मिलने को प्रतिबद्ध।

-- सिद्धार्थ
(लघुकथा के प्रति प्रथम प्रयास)

Monday, February 20, 2012

बड़ी अपनी सी लगती हो

जब-जब यूँ शरमा कर तुम, कुछ हल्के मुस्कुरा देती हो
या पढ़ते-पढ़ते  खयालों में, सर हल्के से हिला देती हो
करते हुए जब कोई बात, इक हल्का धौल जमा देती हो
या ध्यान लगा कर सुनते-सुनते, केशों को सवाँर लेती हो
सच कहता हूँ खुदा की कसम, बड़ी अपनी सी लगती हो।

देखते हुए उन आंखों से जब, पलकें झपका सी लेती हो
या ठंढ़ में अपने हाथों से जब, खुद को ढ़ाँप लेती हो
यूँ ही कुछ समझाते-समझाते, जब फट्कार सी देती हो
गैरों को भी अपना समझ, जब अपना सी लेती हो
सच कहता हूँ खुदा की कसम, बड़ी अपनी सी लगती हो।

- सिद्धार्थ
(रुमानी कविता के प्रति पहला प्रयास)

Thursday, January 12, 2012

दुःस्वप्न

खोलो आँखें, बिस्तर छोड़ो,
कि नयी सुबह हो गयी है|
पर सो ही कहाँ पाए थे,
कि शायद नींद ही कहीं खो गयी है|
      जागे हुए थे सोते में भी
      थी हकीकत ही शायद एक सपना सा|
      तडप रहा था, ठिठुर रहा था वो
      न जाने क्यो लगा था कुछ अपना सा|
धुंधली सी थी आकृति उसकी
दूर क्षितिज के कोरों पर|
पास जाने का सोचा तो था
साथ ना दिया इन कदमो ने मगर|
     सुंदर सा एक रास्ता था क्षितिज तक
     सुसज्जित नरम घास के गळीचों से|
     फिर क्यो दुखी, निराश था वो शख्स
     चला होगा तो आख़िर इसी राह पे|
इसी दुविधा को लिए मन में
क्षितिज तक बढ़ चले ये कदम|
पर वह तो एक भ्रम था मात्र
दूरी कभी हो सकी ना कम|
     ढूँढ छटी, कोहरा घटा,
     वह शख्स साफ आया नज़र|
     वो मेरी ही तो आँखें थी जो
     घूर रही थी मुझे उधर|
विचलित सी जैसे पूछ रही हों,
तू भी इसी राह क्यो आया?
यह जिंदगी तो तेरी अपनी है
फिर अपनी राह खुद क्यो ना बनाया?
     तुझमे थी वो क्षमता औ' लगन
     अगर तुझमे होती थोड़ी चाह,
     तो इस रस्ते पे आने के बदले
     बना सकता था एक बेहतर राह|
तभी इसी पथ के छोर पर
एक और आकृति को देखा बैठा,
शायद मुझे पहचानने की कर रहा था कोशिश
मुझसे अंजान, वो मैं ही था|
     उठ बैठा अचानक नींद से
     देखा की भोर हो गयी है|
     उस दिन से लेकर आज तक जैसे
     मेरी नींद सदा के लिए सो गयी है,
     मेरी नींद सदा के लिए सो गयी है||

-- सिद्धार्थ

Tuesday, November 15, 2011

Reality


Look at yourself
no you can't.
Not in the mirror
It's a mere lateral image.
Not in the pond
It's wavy and blur.
Not in your head
It's a mere projection.
Not through other's eyes
It's not you who are looking.
And when you are tired
just try and stop.
And start enjoying the realities
of this virtual world.

--Sid

Monday, November 14, 2011

अवसर

थी मरूभूमि सी अथाह भयावह रात्रि
पतझड़  के पत्तों सा बिखरा सन्नाटा|
ना ही कोई आहट, ना कोई रव
फिर कौन है जो मंद-मंद बढ़ा चला आ रहा!!
      ना शीत के शूलों का भय,
      ना तम, ना निशचरों का डर,
      बढ़ा आ रहा वह एक लय में
      ना जाने जा रहा है किधर||
है काँधे पर एक फटी सी झोली,
कुछ मैले वस्त्रों का अलंकार|
ना जाने क्या है उसके मन में जो
रुक गया अचनाक एक द्वार|
      कुछ दस्तक सी हुई दरवाज़े पर
      स्पष्ट थी स्फटिक सी वो आवाज़,
      सन्नाटे की मृग-मरीचिका समझ
      जिसे कर दिया गया नज़र-अंदाज़|
बढ़ चला वो आगे लाठी टेकता,
मुख पे लिए मंद मुस्कान|
अपरिचित सा एक अवसर था वो,
जो चल चुका था होने कहीं और मेहरबान||

 -- सिद्धार्थ

Wednesday, September 14, 2011

परिवर्तन

उस रास्ते की तारीफ करने को शब्द नही मिल रहे| यह रास्ता इतनी सोच-समझ कर बनाया गया है कि ऐसा लगता है मानो इसे बनाने वाला प्राणी सिर्फ सोचता और समझता ही रह गया हो, बनाने का कार्य उसने परमपिता परमेश्वर पर छोड दिया हो| इंसान ने आज तक जितने भी अभियांत्रिकी के गुर ईज़ाद किये हैं, इस सडक को बनाने में उन सभी का इस्तेमाल किया गया है| सडक के किस हिस्से में कितना बडा गढ्ढा होना चाहिये तथा किस शुभ मुहूर्त में उस गड्ढे को कितनी ऊँचाई तक तथा किस किस्म के पत्थर से भरना है, यह भी एक पूर्व निर्धारित योजना के तहत तय किया गया है| इसपर चलता हुआ चार-पहिया वाहन इस प्रकार हिचकोले ख़ाता है मानो संसद में पेश किया जाने वाला लोकपाल बिल हो| और जब कोई दो-पहिया वाहन चालक अपनी जान की बाजी लगाते हुए इस सड़क को पार करने की कोशिश करता है, तब ही उसे अहसास हो पाता है की रिश्वत दे कर लाइसेन्स बनवाने में क्या नुकसान है|
कौन कहता है की सच्ची खुशी सिर्फ़ बच्चो को नसीब होती है| एक बार इस सड़क को सही सलामत पार करने में जिस आनंद का अनुभव होता है, उसकी शब्दो में अभिव्यक्ति लगभग असंभव ही है| ऐसा महसूस होता है मानो द्वितिय विश्व युद्ध की जीत का संपूर्ण श्रेय प्रदान कर दिया गया हो| यदि वाहन भारतीय शैली में निर्मित हो तो बिना उत्सव अथवा मेले के झूले का मज़ा देता है| सोने पे सुहागा, यदि कोई सरकारी ट्रक इस सड़क पे चलता हुआ नज़र आए तो ये कह पाना मुश्किल हो जाता है कि वो ट्रक इस सड़क का बलात्कार कर रहा है या फिर ये सड़क उस ट्रक का|
इस सड़क पे तरह तरह की घटनायें भी होती हैं जिनमे सबसे आम है दुर्घटना| यदि कोई मोटरसाइकल सवार खुद को मौत के कुएँ से बचाते हुए गिर जाए तो तुरंत ५०-६० लोग उसको घेर लेंगे जैसे की सड़क पर किसी महिला का प्रसव हो रहा हो| फिर जीतने मुँह उतनी बातें|
"काफ़ी खून निकल आया है|"
"हाँ देखो, खून से मोटरसाइकल कैसे लाल सुर्ख हो गयी है|"
"वो खून नही है, मोटरसाइकल का रंग है|"
"आपको ज़्यादा पता है क्या?"
फिर देखते हे देखते दुर्घटनास्थल युद्धस्थल में परिवर्तित हो जाता है| और जो बेचारा सवार गिरा था, तब तक होश में आ जाता है और इस महासंग्राम को देख कर घबराते हुए चुपचाप वहाँ से निकल जाता है|
कल फिर कोई गिरेगा, कल फिर वो अपने धर्म, जाती इत्यादि गौण चीज़ों को भुला कर एक होंगे| पर गीता-सार की आख़िरी पंक्ति "परिवर्तन ही संसार का नियम है" को अमान्य करार देती हुई ये सड़क कभी नही बदलेगी|

-- This is a true description of the road from my hostel to plant. You have to ride on it to get the clear picture. :)